शहीद शिरोमणि गैंदसिंह जी की शहादत (20 जनवरी 1825 ई.) की स्म्रुति में प्रतिवर्ष मनाया जाने वाला ’शहिद स्मृति दिवस’ हमारे लिए चिरस्मरणीय है. क्योकि -
भारतीय संस्क्रुति के मूल संवाहक आदिवासी समुदाय है भारत के 35 राज्यों (28प्रादेशिक राज्य एवं 7 केन्द्र शासित) में से भारत सरकार के नोटिफिकेशन के अनुसार उपरोक्त में से 30 राज्यो में लगभग 650 जनजातियों की पहचान उनकी मूल संस्क्रुति, प्रक्रुति पूजा तथा आस्था और विश्वास के विश्लेषण से सिद्ध किया जा सकता है कि भारत की संस्क्रुति की मूलाधार में आदिवासी समुदाय है. भारत (राष्ट्र) की पराधीनता से मुक्ति के लिए इनके ‘मुक्ति संग्राम’ को तथाकथित ‘विद्रोह’ संबोधन दे दिया गया, जबकि भरत माता की परतंत्रता से मुक्ति के ये आंदोलन 562 रियासतों सहित संपूर्ण भारतीय भूभाग में संचालित आंदोलन स्वतंत्रता संग्राम ही थे |
महाराष्ट्र का कोली बगावत 1774 से 1785 ई., 1831 – 1832 ई.
बिहार का तमोर चौरी-चौरा आंदोलन 1785 – 1800 ई.
बिहार का मुणा विद्रोह 1820, 1832, 1867 ई.
गुजरात में भीलों का तथाक्थित विद्रोह 1809 से 1828 ई.
असम के खासियों का आंदोलन 1929 ई.
मणिपुर के लुशाइयों का आंदोलन 1844 ई. आदि से लेकर राष्ट्रक्यापी स्वतंत्रता आंदोलनों की श्रेणी में छतीसगढ के बस्तर (पुरातन संबोधन-आट्विक क्षेत्र महाकांतार, दक्षिणापथ दण्ड्कारण्य आदि) इन्हीं श्रेणियों में बस्तर के ये आंदोलन- चक्रकोट राज्य की राज्धानी बडेडोंगर का हल्बा क्रांति 1774 से 1779 ई. भोपालपटनम संघर्ष 1795 ई.
परलकोट विद्रोद (आंदोलन) 1825 ई.
तारापुर विद्रोह (आंदोलन) 1842 – 1854 ई.
मुरिया विद्रोह (आंदोलन) 1842 – 1863 ई.
महानामुक्ति संग्राम 1856 – 1857 ई.
कोया विद्रोह (आंदोलन) 1859 ई.
मुरिया विद्रोह (आंदोलन) 1876 ई.
रानीचोरिस 1878 – 1882 ई.
महान भुमकाल 1910 ई.
इन्हीं आंदोलनों (स्वतंत्रता – समर) में –
पराधीनता से मुक्ति के लिए किए गए आत्मोत्सर्ग, बलिदानों को याद कर हमारी पीढी गौरवान्वित होती ःऍइ. बडे डोंगर की हल्बा – क्रांति 1774 – 1779 ई. के विषय में इतिहासकार टी.व्ही. रसेल ने ऎतिहासिक घटना का उल्लेख किया है –
“Tradition also remain in Baster of a Halba revolts. It is said that during Raja Daryao deo’s regin, about 125 years back, the Halbas reveled and many were thrown down a water fall ninety feet high, one only of these escaping with his life. The eyes of some were also put but as a punishment for the oppression.
They had exercizied and a stone inscription at Donger records the oath of felty taken by the Halbas before the image of Danteshwari, the tutelary deity of Bastar, after the year insurrection was put-down in Samvat 1836 of A.D. 1979. The Halbas ewre thus a caste of considerable influence since they could attempt to subvert the rullingdynasty.”
इसी तारतम्य में परलकोट जहां आज (परलकोट विल्हेज) में बंगलादेश से भारत में आये विस्थापित परिवार स्थायी रुप से बसाए गए हैं, यधपि परलकोट की राजधानी (मुख्यालय) वीरान है | गुलामी से मुक्ति के प्रथम संवाहक ‘शहीद गैंदसिंह ’ पूर्व काल में परलकोट एक राज्य था, यह सप्तमाडिया राज्यों में से एक बडा राज्य था. 1809 ईसवीं में भोसला आक्रमण के पश्चात दरियाव देव के पुत्र महिपाल देव पर अनेकों वर्षों का बकाया टकोली नागपुर के भोसला शासकों को देना था इस बकाया राशि के बदले महिपाल देव ने 1830 में सिहावा परगना को नागपुर शासन के सुपुर्द किया, सिहावा परगना के केवल 05 गांव उसकी मां के अधिकारी में थे. इस कारण उन 05 गांवों को छोडकर शेष सिहावा क्षेत्र नागपुर के भोसला शासकों के अधीन चला गया. भोसला शासको की दुर्बलता के कारण 1818 ईसवी के पश्चात छतीसगढ सूबा का प्रशासन ब्रिटिश शासन के अधिकारियों के हाथ चला गया. जिसके कारण बस्तर के राजाओं (कांकेर एवं बस्तर को छोड्कर) की स्थिति जमींदार की स्थिति में आ गई. बस्तर रियासत की जमीदारियों में परलकोट जमींदारी की गणना सबसे पुरानी में की जाती है. यह जमींदारी बस्तर रियायत की उतर पश्चिम में पंखाबुंर से मात्र 40 किमी में स्थित है. यह जमींदारी महाराष्ट्र के चांदा जिला तक फैला हुआ था, इस जमींदारी का क्षेत्रफल 640 वर्गमील तथा जनसंख्या 5920 एवं गांवों की संख्या 165 था. परलकोट के पहले 10 कि.मी. कोटरी नदी पार करना पड्ता है. नीब्रा नदी और गुडरा नदी जिसे मानकिन गुण्डा कहते है. के संगम पर स्थित है. परलकोट अब विरान है, परन्तु मात्र 2 फर्लांग पर सितरम गांव है जो आबाद है, परलकोट पहाडो से घिरा हैपहले पहाड के उपर राजमहल था, अब वहां खंडहर के रुप में अवशेष है. पहाड के नीचे मां दंतेश्वरी का मंदिर है, शिव मंदिर है, स्थानीय मान्यतानुसार बाबा माडिया मोगराज का मंदिर है. स्थानीय मान्यतानुसार बाबा माडिया मोगराज वही देव है, जिनका बडा लड्का बाबा नरसिंह नाथ बडेडोंगर में है, जिनके मंझले पुत्र बाबा पाटदेव जगदलपुर में है, जिनकी पत्नी मां देवनी डोकरी अंतागढ मेंहै, जिनके एक भाई हिन्दू बिनापाल एवं एक भाई कोलर में है एवं अन्य जगह उनके रिश्तेदार है. गैंद्सिंह परलकोट जमींदारी के जमीदार थे उन्हें भुमिया राजा की उपाधि थी.’ भुमिया राजा’ इन्हे इसलिए कहा गया क्योकिं इनके पूर्व पुरुष चटटान है, जिसमें योनी के चिन्ह हैं. उसमें से निकल कर राजा समीप में बैठते थे |
सन 1818 में नागपुर के मराठा शासन से अंग्रेजी शासन की संधि हुई थी जिसके अनुसार अंग्रेजों को छतीसगढ का शासन का अधिकार बारह वर्षों के लिए सौंप दिया था इन बारह वर्षों में छ: अंग्रेज अधिकारियों ने छ्तीसगढ पर शासन किया, इन अधिकारियों की सुची इस प्रकार है :-
01. एड मंड्स हैविट (जुन सन 1818 से 20 जुलाई)
02. मेजर एगन्यु (21 जुलाई सन 1818 से 1826)
03. केप्टन हण्टर (सन 1926 कुछ माह तक)
04. केप्टन सैंड्स (सन 1826 से 1828)
05. केप्टन विल्किन
06. केप्टन क्रार्ट सन 1930 तक.
सोना खान के वीर नारायाण सिंह के पिता रामराय ने सन 1819 में जो विद्रोह किया था वह भी अंग्रेजी शासन के खिलाफ था. मेजर एगन्यु उस समय छतीसगढ्के अधिकारी थे. मेजर एगन्यु के कार्यकाल के समय में परलकोट के जमीदार गैंद्सिंह ने सन 1824 में शोषण एवं अत्याचार के विरुद्ध विप्लव का शंखनाद किया था. गैंद्सिंह ने अंग्रेजी शासन के खिलाफ आंदोलन किया था और अंग्रेज अधिकारियो ने ही प्राणदण्ड दिया था, यह मेजर एगन्यु के पत्रो से स्पष्ट है जो उस समय छतीसगढ के सर्वोच्च पद पर थे. मेजर एगन्यु के इस पत्रों की जानकारी डां. प्रभुलाल मिश्र के ग्रंथ ‘पोलिटिकल हिस्ट्री आंफ छतीसगढ’ में उल्लेखित है जो कि एगन्यू साहब का लेख दिनांक 01 जनवरी 1825 का है. यह पत्र उन्होने केप्टन वीन्हा से केप्टन प्यू को, जो चांदा क्षेत्र के सुपरिटेन्डेंट ने लिखा था उसमे उन्होने प्यू साहब से बस्तर क्षेत्र के पार्लेकोट (परलकोट) के जमींदार गैंदशाह (गैंद्सिंह) को पकड्ने में सहायता मांगी थी, इस प्रकार इस पत्र के माध्यम से इस बात की पुष्टी हो जाती है कि वे (मेजर एगन्यू) इस क्षेत्र में सन 1825 तक थे. पत्र पर तत्काल कार्यवाही कि गयी तथा अंग्रेजों की सेना ने जिसनें मराठा सैनिक भी सामिल थे. 10 जनवरी 1825 को परलकोट को घेर लिया. काफि संघर्ष के बाद गैंद्सिंह गिरफ्तार कर लिये गये तथा 20 जनवरी 1825 को उन्हे परलकोट के महल के सामने फांसी दे दी गई |
परलकोट मे मराठों और ब्रिटिश अधिकारियो की उपस्थिती से अबुझमाडिया आदिवासियो को अपनी पहचान का खतरा उत्पन्न हो गया था. परदेशी के हस्तक्षेप से अबुझमाडिया अपनी संस्क्रुती में खतरा महसुस करने लगे थे. मराठो और अंग्रेजो की शोषण नीती से अबुझमाडिया तंग आ चुके थे. गैंदसिंह के माध्यम से अबुझमाडिया ऎसे संसार की रचना करना चाहते थे, जहां लुटखसोट और शोषण ना हो. ये विचार उनमें मराठों और अंग्रेजो के प्रति बदले की भावना का प्रमुख कारण बनी |
गैंद्सिंह के आव्हान पर अबुझमाडिया स्त्री-पुरुष परलकोट में एकत्रीत होने लगे. अबुझमाडिया स्त्रीयां रमोतीन के नेत्रित्व में धड्वा व्रुक्ष की ठनियां को विद्रोह के संकेत के रुप में एक स्थान से दुसरे स्थान पर भेजती थी. पतो के सुखने पह्ले वर्ग विशेष को विद्रोहियो के पास जाने की हिदायद थी. कम समय में पुरे मांड अंचल में मात्रुभूमि का अंग्रेजों की पराधिनता से मुक्त कराने की चिंगारी फैल गयी थी. अबुझमाडिया के स्त्री-पुरुषो ने 24 दिसंबर 1824 ई. को अंग्रेजों के खिलाफ ‘मुक्ति आंदोलन’ किया. क्रांतिकारी 4 जनवरी 1825 ई. तक अबुझमाडिया से चांदा तक छा गए. कम समय में पुरे माड में अंग्रेजों के खिलाफ नफरत फैल गयी. गैंद्सिंह के नेत्रुत्व में क्रांतकारी आदिवासी किसी मराठा या अंग्रेज को पकड्ते थे. तो वे बोटी-बोटी काट डालते थे. मुक्ति संग्राम का संचालन अलग-अलग टुक्डियो में अबुझमाडिया जिनमें महिलाये भी सम्मिलीत थी, सम्मिलित रुप से आंदोलनसंचालित करते थे. रात्री में क्रांतिकारी घोटुलों में इकठठे होते थे. और अगले दिन अंग्रेजों के साथ केसे युद्ध किया जावे, इसके बारे में योजना बनाते थे. क्रांतिकारियों का प्रमुख लक्ष्य विदेशी सता को धुल चटाना व परलकोट तथा बस्तर को गुलामी से मुक्ति दिलाना था. गैंद्सिंह के आंदोलन से छ्तीसगढ का अंग्रेज अधिक्षक एगन्यु घबडा उठा गैंद्सिंह के इस आंदोलन को अंग्रेज विद्रोह मानते थे, जिसका दमन करने के लिये एगन्यू ने चांदा के पुलीस अधिक्षक केप्टन पेव से मदद मांगी. केप्टन पेव ने मराठा और अंग्रेज सेना के बल पर परलकोट के क्रांतिकारियो के साथ युद्ध किया. लगातार अटठारह दिनों तक (24 सिसंबर से 10 जनवरी 1825तक) क्रांतिकारियों और अंग्रेजों के मध्य युद्ध होता रहा . इस युद्ध मे गैंद्सिंह के द्वारा जैविक युद्ध किये जाने के भी प्रमाण मिलते है, जिनमे इनके द्वारा मंत्रो कि शक्ति से मधुमक्खियों का आव्हान किया जाता व उन्हे अंग्रेज और मराठों सैनिक के उपर छोडा जाता था. जिससे अंग्रेज व मराठा सैंनिक मधुमक्खियो के काट्ने से युद्ध करने के लिये आगे नही बढ पाते थे. जिससे गैंद्सिंह को युध्द करने हेतु पर्याप्त समय मिल जाता था. युद्ध मे पुरुषों के मरने के बाद स्त्रियों व्दारा युद्ध जारी रखा जाता था. परंमपरागत शस्त्रों के कारण अबुझमाडिया अंग्रेजों के आधुनिक शस्त्रों के आगे टिक न सके और अंत मे उनकी पराजय हुई. 10 जनवरी तक युद्ध समाप्त हो गया था. अंग्रेजों ने गैंद्सिंह को पकड लिया. गैंद्सिंह पर अंग्रेजों ने झुठा मुकदमा चलाया. 20 जनवरी 1825 ई. को अंग्रेजों ने गैंद्सिंह को उसी के महल (किले) के सामने फांसी दे दी
गैंद्सिंह का बलिदान परलकोट की धर्ती की मुक्ति और बस्तर की रक्षा के लिए एक अविस्मरणीय मिसाल और अध्याय है. गैंद्सिंह का उत्सर्ग काल के निष्कर्म पर उभरी एक स्वर्णरेखा की भाति है. गैंद्सि6ह जी ने अपने स्वाभीमान तथा मात्रुभुमि की रक्षा एवं गुलामी से मुक्ति का आंदोलन चलाया था |
अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतंत्रता संराम का प्रथम शंखनाद करने वाले गैंदसिंह का आत्मोत्सर्ग अनुठा और अविस्मरनिय है. हल्बा आदिवासी समाज, संपुर्ण आदिवासी समाज एवं संपुर्ण छतीसगढ का माथा इस तथ्यबोध से गर्वोन्नत है कि बस्तर जैसे पिछ्ले आदिवासी बहुल अंचल में स्वतंत्रता की चेतना का प्रथम बिजारोपन गैंद्सिंह जी ने किया. गैंद्सिंह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम मे बस्तर के हि नही वरन संपुर्ण छतीसगढ सहित राष्ट्र के प्रथम शहीद मानने में अतिश्योक्ति नहीं होगी. आज हम सब स्वर्गीय गैंद्सिंह जी के बलिदान दिवस (20 जनवरी) को उनके पुण्य स्म्रुति के रुप में मनाते हुए गर्वान्वित हो रहे हैं. राष्ट्र भक्ति एवं स्वाभिमान की रक्षा की प्रेरणा ग्रहण करना ही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी |
जाल में पीडा क्या होती है ?
मुक्त हुये पंछी से पूछो !
स्वतंत्रता कैसे मिल पायी ?
बलिदान खून के बूंद से पूछो !

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